राजस्थानी जैन साहित्य Rajasthan's Jain Literature
Posted: 19 Jun 2011 09:46 PM PDT
ख्यात साहित्य की परम्परा के जैसे ही, राजस्थान के इतिहास के लिए जैन साहित्य का भी विशेष महत्व है। यह साहित्य जैन मुनियों, आचार्यों तथा श्रावकों द्वारा लिखा गया मूलत: जैन धर्म के उपदेशों की विवेचना, तीथर्ंकरों की महत्ता, जैन मंदिरों के उत्सव, संघ यात्राओं के इत्यादि से सम्बन्धित है। किन्तु इससे कई ऐतिहासिक सूचनाओं का भी ज्ञान प्राप्त होता है। राजस्थान के प्रत्येक गांव और नगर में जैन श्रावकों का निवास है, अत: लगभग सभी स्थानों पर जैन मंदिर एवं उपासकों में जैन साधुओं का आवागमन रहता है। वर्षा के चार महिनों में साधु जन एक ही स्थान पर रहते हुए चतुर्मास व्यतीत करते हैं। जहां वे समय का सदुपयोग चिन्तन, मनन और प्रवचन में करते हैं। चिन्तन मनन के साथ-साथ उनमें साधु लेखन-पठन का कार्य भी करते हैं। ऐसा लेखन दो प्रकार को होता है-
(एक) प्राचीन जैन ॠषियों की प्रतिलिपि करना
(दो) निज अनुभव अन्य धार्मिक सामाजिक प्रक्रियाओं को आलेखाबद्ध करना।
इस प्रकार दोनों ही प्रकार के लेखन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से तत्कालीन परिस्थितियों का समावेश हो जाना स्वाभाविक रहता है। यद्यपि इसमें कई बार श्रुति-परम्परा के कारण "इतिहास-भ्रम' की सम्भावनाएं भी रहती है पर इतिहास-बोध की दृष्टि से इनकी तथ्यपरकता इन्हें प्रमाणिक-साधन के समकक्ष रख देती है। सम्वत् तिथि एवं बार की सूचनाओं के रुप में उपासकों में रचित साहित्य राजस्थान ही नहीं वरन् भारतीय इतिहास की कई अनुमानित ऐतिहासिक घटनाओं की गुत्थियों को खोलने में सक्षम है। जैन मुनियों के पंच महाव्रतों में झूठ नहीं बोलने का एक व्रत है अत: जो कुछ उन्होंने देखा, सुना और परम्परा से प्राप्त हुआ, उसे उसी रुप में लिखने का भी प्रयत्न किया। इस दृष्टि से मि बात नहीं लिखी जाने के प्रति उन्होंने पूरी सावधानी रखी। जैनाचार्य एवं मुनियों को वैसे भी किसी राजा को, अधिकारी को या कर्मचारी को प्रसन्न करने के लिए सच्ची घटनाओं को छिपाने और कल्पित बातों को जोड़ने की आवश्यकता नहीं थी, इसीलिए अन्य कवियों और लेखकों की अपेक्षा इनके ग्रन्थ अधिक प्रामाणिक कहे जा सकते हैं।
तीर्थाटन और स्थान भ्रमण करते हुए जैन यात्रियों द्वारा राज्य, प्रांत, नगर, गांव, राजा, सामन्त, मंत्री, जैन एवं जैनेतर धार्मिक त्यौहार-उत्सव, जाति गोत्र आदि कई बातों का समावेश उनकी स्मृति में उत्कीर्ण हो जाता था एवं लेखन में विकीर्ण। इसीलिए जिनालय संग्रहित साहित्य को ऐतिहासिक सूचनाओं में महत्वपूर्ण साधन कहना एक ऐतिहासिक सत्य है।
प्राप्त जैन साहित्य भाषा की दृष्टि से संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी के अतिरिक्त गुजराती एवं कन्नड़ भाषा में लिखा गया है।
संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश में लिखे गए चरित या चरियउ में तीर्थकरों की स्तुति, गुरु उपासना अथवा साहित्यिक-नायक पर उद्धत कोई संदेश मुख्य विषय होता है। पर इनमें इतिहास के लिए भी सामग्री मिल जाती है, जैसे श्री कल्कासूरि चरितम अथवा कल्काचार्य कथानक से ज्ञात होता है कि ५७ इस्वी पूर्व शक नामक आक्रमणकारी जाति ने पश्चिम मालवा में राजस्थान के भू-भाग होते हुए प्रवेश किया था।
इसी प्रकार मुनि जिन विजय द्वारा सम्पादित प्राचीन जैन ग्रन्थ प्रभावक चरित मालवा क्षेत्र के अन्तर्गत राजस्थान के भू-भाग की सूचना प्रदान करता है।
"आवश्यक सूत्र नियुक्ति' जो कि ईसा की प्रथम शताब्दी में लिखी गई थी, इसकी टीका जो ११४१ ई. में पुन: सृजन की गई, में तत्कालीन राजस्थान के राजनीतिक जीवन ही नहीं वरन् सामाजिक-आर्थिक जीवन के विविध पक्षों का अच्छा उल्लेख करती है। "विमल सूरि' के प्राकृत में लिखे गए ग्रन्थ "पदःमचरिय' से १२वीं शताब्दी राजस्थान मुख्यत: जैसलमेर क्षेत्र के बारे में ज्ञात होता है यद्यपि इसका मूल ईसा की तीसरी सदी है। ७वीं ईस्वी तक ऐसे ही कई सूचनापरक जैन ग्रंथ अभी भी पूर्णत: खोज के विषय हैं।
चित्तौड़ क्योंकि प्राचीनकाल से ही जैनाचार्यो में आवागमन का मुख्य केन्द्र रहा था अत: यहां के एक प्रमुख जैन विद्वान एलाचार्य की शिष्य परम्परा में मुनी वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, लोकसेन आदि द्वारा कई ग्रन्थ रचे गए थे। इनके लिखे ग्रंथों में मुख्यत: "जयधवला टीका', "गध कथामृतक' तथा उत्तर पुराण हैं। इनमें प्राचीन राष्ट्रकूट या राठौड़ वंश के शासकों का इतिहास मिलता है।
आचार्य हरिभद्र सूरि चित्तोड़ निवासी थे जिनका कार्यक्षेत्र भीनमाल रहा। इन्होंने "समराच्य कहा' एवं "धूर्तारन्यान' की रचना की थी। ९८७ ई. के लगभग लिखे इन ग्रन्थों में राजस्थान के जनजीवन के विविध पक्षों का वर्णन उपलब्ध होता है। "समराच्य कहा' को १२६७ ई. के लगभग पुन: प्रधुम्न सूरि द्वारा संक्षिप्त रुप में लिखा गया। इसमें पृथ्वीराज चौहान कालीन प्रशासनिक एवं आर्थिक व्यवस्था का कथावस्तु के अन्तर्गत उल्लेख किया हुआ प्राप्त होता है।
७७८ ई. में जालोर में लिखी गई अन्य प्राकृत जैन रचना "कुवलय माला कहा' भी प्रतिहार शासक वत्सराज के शासन और समाज का वर्णन करती है। उद्योतन सूरि द्वारा लिखी इस कहा अर्थात कथा में राजस्थान की धार्मिक दशा पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। चन्द्रप्रभ सूरिकृत "प्रभावक चरित' तथा बप्पभट्टि प्रबन्ध में भी प्रतिहार शासकों के इतिहास पर टिप्पणियां उपलब्ध होती है। यह ग्रंथ नवीं शताब्दी में लिखे गए थे। परम्परा कालीन राजस्थान पर प्रकाश डालने वाले ग्रन्थों में जिनप्रभ सूरि द्वारा प्रणित "तीर्थकल्प' या विविध तीर्थ कल्प, मुनि चन्द्र का "अमर अरित' (११४८ ई.) के नाम लिए जा सकते हैं।
१२वीं शताब्दी के बधावणा-गीत से जैन साहित्य में प्रबन्ध-काव्य, फागु, चोपाई, उपलब्ध होने लगते हैं। विषय की दृष्टि से फागु में वसन्त ॠतु का स्वागत पूजा आदि का चित्रण, बधावणा-गीत में स्वागत के गीत उल्लेखित रहते हैं। इन स्रोतों में जैन इतिहास के साथ-साथ सांस्कृतिक इतिहास को जानने के लिए अच्छ विवरण प्राप्त होते हैं।
इसी सदी की जैन रास रचनाओं में १२३२ ई. में लिखा गया पाल्हण कृत नेमि जिणद रासो या आबू रास ऐतिहासिक सामग्री के लिए उपयोगी है। इस रासों में आबू में विमल मंत्री द्वारा बनवाए गए ॠषभदेव के मंदिर सहित सोलंकी नरेश लूण प्रसाद के मंत्री वास्तुपाल एवं तेजपाल द्वारा विभिन्न मंदिरों के निर्माण, जिर्णोद्धार एवं प्रतिमा-प्रतिष्ठा का वर्णन किया गया है।
१४वीं शताब्दी में महावीर रास (वि.सं. १३३९), जिन चद्र सूरि वर्णना रास आदि मुख्य है। इन रासों में दिल्ली सुल्तान कुतुबद्दीन का वर्णन आता है।
१५वीं शताब्दी में समयप्रभ गणि द्वारा लिखा गया "श्री जिनभद्र सूरि गुरुराज पट्टामभिषेक रास' में जैन समाज की धार्मिक प्रक्रियाओं के वर्णन में मेवाड़ के शासक राणा लाखा (१३८२ ई. से १४२१ ई.) के शासन पर भी प्रकाश डालता है।
वि.सं. १४४५ अर्थात् १३८८ ई. में चांद कवि ने भट्टारक देव सुन्दर जी रास एवं १५वीं शताब्दी में संग्रहित जिनवर्द्धन सूरि रास में आचार्य परम्परा के साथ ही राजस्थान के कुछ नगरों का वर्णन प्राप्त होता है।
रासों साहित्य के अतिरिक्त काव्य प्रबन्ध, चोपाई, विवाहलो आदि साहित्य विद्या के अन्तर्गत लिखी हुई ऐतिहासिक साहित्य कृतियों में चौहान के इतिहास हेतु १५वीं शताब्दी (१४०३ ई.) का ग्रंथ हमीर महाकाव्य मुख्य है। यह काव्य नयन चन्द्र सूरि द्वारा रण थम्भोर के चौहान शासकों के बारे में लिखा गया था।
वि.सं. १७४२/१७८५ ई. में लिखी गई "भीम चोपाई' की रचना कीर्तिसागर सूरि के एक शिष्य ने की थी। दक्षिणी राजस्थान की रियासत डूंगरपुर के शासक जसवन्त सिंह की रानी, डूंगरपुर के गांव जो चोपाई के अनुसार ३५०० थे, का उल्लेख, आसपुर के जागीरदार का उल्लेख, धुलेव अर्थात ॠषभदेव की यात्रा का वर्णन आदि विषय इस कृति में सम्मिलित हैं। इस प्रकार यह चोपाइ इतिहास के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है। जैन-साहित्य में आचार्यादि द्वारा रचे गये गीतों का भी सूचना परक महत्व है, एक ओर गीत जहां प्राचीन घटनाओं की ऐतिहासिक जानकारी के बहुत बड़े साधन है, वहां दूसरी ओर तात्कालिक परिस्थितियों पर लोक हृदय की समीक्षा का विवरण भी इन गीतों में मिल जाता है।
इस प्रकार निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि जैन साहित्य विवरणात्मक धार्मिक साहित्य की श्रेणी में आते हुए भी ऐतिहासिक सूचनाओं के लिए अच्छे साधन हैं।
Posted: 19 Jun 2011 09:46 PM PDT
ख्यात साहित्य की परम्परा के जैसे ही, राजस्थान के इतिहास के लिए जैन साहित्य का भी विशेष महत्व है। यह साहित्य जैन मुनियों, आचार्यों तथा श्रावकों द्वारा लिखा गया मूलत: जैन धर्म के उपदेशों की विवेचना, तीथर्ंकरों की महत्ता, जैन मंदिरों के उत्सव, संघ यात्राओं के इत्यादि से सम्बन्धित है। किन्तु इससे कई ऐतिहासिक सूचनाओं का भी ज्ञान प्राप्त होता है। राजस्थान के प्रत्येक गांव और नगर में जैन श्रावकों का निवास है, अत: लगभग सभी स्थानों पर जैन मंदिर एवं उपासकों में जैन साधुओं का आवागमन रहता है। वर्षा के चार महिनों में साधु जन एक ही स्थान पर रहते हुए चतुर्मास व्यतीत करते हैं। जहां वे समय का सदुपयोग चिन्तन, मनन और प्रवचन में करते हैं। चिन्तन मनन के साथ-साथ उनमें साधु लेखन-पठन का कार्य भी करते हैं। ऐसा लेखन दो प्रकार को होता है-
(एक) प्राचीन जैन ॠषियों की प्रतिलिपि करना
(दो) निज अनुभव अन्य धार्मिक सामाजिक प्रक्रियाओं को आलेखाबद्ध करना।
इस प्रकार दोनों ही प्रकार के लेखन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से तत्कालीन परिस्थितियों का समावेश हो जाना स्वाभाविक रहता है। यद्यपि इसमें कई बार श्रुति-परम्परा के कारण "इतिहास-भ्रम' की सम्भावनाएं भी रहती है पर इतिहास-बोध की दृष्टि से इनकी तथ्यपरकता इन्हें प्रमाणिक-साधन के समकक्ष रख देती है। सम्वत् तिथि एवं बार की सूचनाओं के रुप में उपासकों में रचित साहित्य राजस्थान ही नहीं वरन् भारतीय इतिहास की कई अनुमानित ऐतिहासिक घटनाओं की गुत्थियों को खोलने में सक्षम है। जैन मुनियों के पंच महाव्रतों में झूठ नहीं बोलने का एक व्रत है अत: जो कुछ उन्होंने देखा, सुना और परम्परा से प्राप्त हुआ, उसे उसी रुप में लिखने का भी प्रयत्न किया। इस दृष्टि से मि बात नहीं लिखी जाने के प्रति उन्होंने पूरी सावधानी रखी। जैनाचार्य एवं मुनियों को वैसे भी किसी राजा को, अधिकारी को या कर्मचारी को प्रसन्न करने के लिए सच्ची घटनाओं को छिपाने और कल्पित बातों को जोड़ने की आवश्यकता नहीं थी, इसीलिए अन्य कवियों और लेखकों की अपेक्षा इनके ग्रन्थ अधिक प्रामाणिक कहे जा सकते हैं।
तीर्थाटन और स्थान भ्रमण करते हुए जैन यात्रियों द्वारा राज्य, प्रांत, नगर, गांव, राजा, सामन्त, मंत्री, जैन एवं जैनेतर धार्मिक त्यौहार-उत्सव, जाति गोत्र आदि कई बातों का समावेश उनकी स्मृति में उत्कीर्ण हो जाता था एवं लेखन में विकीर्ण। इसीलिए जिनालय संग्रहित साहित्य को ऐतिहासिक सूचनाओं में महत्वपूर्ण साधन कहना एक ऐतिहासिक सत्य है।
प्राप्त जैन साहित्य भाषा की दृष्टि से संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी के अतिरिक्त गुजराती एवं कन्नड़ भाषा में लिखा गया है।
संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश में लिखे गए चरित या चरियउ में तीर्थकरों की स्तुति, गुरु उपासना अथवा साहित्यिक-नायक पर उद्धत कोई संदेश मुख्य विषय होता है। पर इनमें इतिहास के लिए भी सामग्री मिल जाती है, जैसे श्री कल्कासूरि चरितम अथवा कल्काचार्य कथानक से ज्ञात होता है कि ५७ इस्वी पूर्व शक नामक आक्रमणकारी जाति ने पश्चिम मालवा में राजस्थान के भू-भाग होते हुए प्रवेश किया था।
इसी प्रकार मुनि जिन विजय द्वारा सम्पादित प्राचीन जैन ग्रन्थ प्रभावक चरित मालवा क्षेत्र के अन्तर्गत राजस्थान के भू-भाग की सूचना प्रदान करता है।
"आवश्यक सूत्र नियुक्ति' जो कि ईसा की प्रथम शताब्दी में लिखी गई थी, इसकी टीका जो ११४१ ई. में पुन: सृजन की गई, में तत्कालीन राजस्थान के राजनीतिक जीवन ही नहीं वरन् सामाजिक-आर्थिक जीवन के विविध पक्षों का अच्छा उल्लेख करती है। "विमल सूरि' के प्राकृत में लिखे गए ग्रन्थ "पदःमचरिय' से १२वीं शताब्दी राजस्थान मुख्यत: जैसलमेर क्षेत्र के बारे में ज्ञात होता है यद्यपि इसका मूल ईसा की तीसरी सदी है। ७वीं ईस्वी तक ऐसे ही कई सूचनापरक जैन ग्रंथ अभी भी पूर्णत: खोज के विषय हैं।
चित्तौड़ क्योंकि प्राचीनकाल से ही जैनाचार्यो में आवागमन का मुख्य केन्द्र रहा था अत: यहां के एक प्रमुख जैन विद्वान एलाचार्य की शिष्य परम्परा में मुनी वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, लोकसेन आदि द्वारा कई ग्रन्थ रचे गए थे। इनके लिखे ग्रंथों में मुख्यत: "जयधवला टीका', "गध कथामृतक' तथा उत्तर पुराण हैं। इनमें प्राचीन राष्ट्रकूट या राठौड़ वंश के शासकों का इतिहास मिलता है।
आचार्य हरिभद्र सूरि चित्तोड़ निवासी थे जिनका कार्यक्षेत्र भीनमाल रहा। इन्होंने "समराच्य कहा' एवं "धूर्तारन्यान' की रचना की थी। ९८७ ई. के लगभग लिखे इन ग्रन्थों में राजस्थान के जनजीवन के विविध पक्षों का वर्णन उपलब्ध होता है। "समराच्य कहा' को १२६७ ई. के लगभग पुन: प्रधुम्न सूरि द्वारा संक्षिप्त रुप में लिखा गया। इसमें पृथ्वीराज चौहान कालीन प्रशासनिक एवं आर्थिक व्यवस्था का कथावस्तु के अन्तर्गत उल्लेख किया हुआ प्राप्त होता है।
७७८ ई. में जालोर में लिखी गई अन्य प्राकृत जैन रचना "कुवलय माला कहा' भी प्रतिहार शासक वत्सराज के शासन और समाज का वर्णन करती है। उद्योतन सूरि द्वारा लिखी इस कहा अर्थात कथा में राजस्थान की धार्मिक दशा पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। चन्द्रप्रभ सूरिकृत "प्रभावक चरित' तथा बप्पभट्टि प्रबन्ध में भी प्रतिहार शासकों के इतिहास पर टिप्पणियां उपलब्ध होती है। यह ग्रंथ नवीं शताब्दी में लिखे गए थे। परम्परा कालीन राजस्थान पर प्रकाश डालने वाले ग्रन्थों में जिनप्रभ सूरि द्वारा प्रणित "तीर्थकल्प' या विविध तीर्थ कल्प, मुनि चन्द्र का "अमर अरित' (११४८ ई.) के नाम लिए जा सकते हैं।
१२वीं शताब्दी के बधावणा-गीत से जैन साहित्य में प्रबन्ध-काव्य, फागु, चोपाई, उपलब्ध होने लगते हैं। विषय की दृष्टि से फागु में वसन्त ॠतु का स्वागत पूजा आदि का चित्रण, बधावणा-गीत में स्वागत के गीत उल्लेखित रहते हैं। इन स्रोतों में जैन इतिहास के साथ-साथ सांस्कृतिक इतिहास को जानने के लिए अच्छ विवरण प्राप्त होते हैं।
इसी सदी की जैन रास रचनाओं में १२३२ ई. में लिखा गया पाल्हण कृत नेमि जिणद रासो या आबू रास ऐतिहासिक सामग्री के लिए उपयोगी है। इस रासों में आबू में विमल मंत्री द्वारा बनवाए गए ॠषभदेव के मंदिर सहित सोलंकी नरेश लूण प्रसाद के मंत्री वास्तुपाल एवं तेजपाल द्वारा विभिन्न मंदिरों के निर्माण, जिर्णोद्धार एवं प्रतिमा-प्रतिष्ठा का वर्णन किया गया है।
१४वीं शताब्दी में महावीर रास (वि.सं. १३३९), जिन चद्र सूरि वर्णना रास आदि मुख्य है। इन रासों में दिल्ली सुल्तान कुतुबद्दीन का वर्णन आता है।
१५वीं शताब्दी में समयप्रभ गणि द्वारा लिखा गया "श्री जिनभद्र सूरि गुरुराज पट्टामभिषेक रास' में जैन समाज की धार्मिक प्रक्रियाओं के वर्णन में मेवाड़ के शासक राणा लाखा (१३८२ ई. से १४२१ ई.) के शासन पर भी प्रकाश डालता है।
वि.सं. १४४५ अर्थात् १३८८ ई. में चांद कवि ने भट्टारक देव सुन्दर जी रास एवं १५वीं शताब्दी में संग्रहित जिनवर्द्धन सूरि रास में आचार्य परम्परा के साथ ही राजस्थान के कुछ नगरों का वर्णन प्राप्त होता है।
रासों साहित्य के अतिरिक्त काव्य प्रबन्ध, चोपाई, विवाहलो आदि साहित्य विद्या के अन्तर्गत लिखी हुई ऐतिहासिक साहित्य कृतियों में चौहान के इतिहास हेतु १५वीं शताब्दी (१४०३ ई.) का ग्रंथ हमीर महाकाव्य मुख्य है। यह काव्य नयन चन्द्र सूरि द्वारा रण थम्भोर के चौहान शासकों के बारे में लिखा गया था।
वि.सं. १७४२/१७८५ ई. में लिखी गई "भीम चोपाई' की रचना कीर्तिसागर सूरि के एक शिष्य ने की थी। दक्षिणी राजस्थान की रियासत डूंगरपुर के शासक जसवन्त सिंह की रानी, डूंगरपुर के गांव जो चोपाई के अनुसार ३५०० थे, का उल्लेख, आसपुर के जागीरदार का उल्लेख, धुलेव अर्थात ॠषभदेव की यात्रा का वर्णन आदि विषय इस कृति में सम्मिलित हैं। इस प्रकार यह चोपाइ इतिहास के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है। जैन-साहित्य में आचार्यादि द्वारा रचे गये गीतों का भी सूचना परक महत्व है, एक ओर गीत जहां प्राचीन घटनाओं की ऐतिहासिक जानकारी के बहुत बड़े साधन है, वहां दूसरी ओर तात्कालिक परिस्थितियों पर लोक हृदय की समीक्षा का विवरण भी इन गीतों में मिल जाता है।
इस प्रकार निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि जैन साहित्य विवरणात्मक धार्मिक साहित्य की श्रेणी में आते हुए भी ऐतिहासिक सूचनाओं के लिए अच्छे साधन हैं।
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